गुप्तकाल | राजर्षितुल्य वंश | पर्वतद्वारक वंश |नलवंश | चन्द्रगुप्त | हर्षगुप्त | महाशिवगुप्त- बालार्जुन | बाल वंश | सोम वंश | पाण्डव वंश | बाण वंश
गुप्तकाल
उत्तर भारत में शुंग एवं कुषाण सत्ता के पश्चात् गुप्त वंश ने राज किया तथा दक्षिण भारत में सातवाहन शक्ति के पराभव के पश्चात् गुप्त राज वंश की स्थापना हुई। चौथी सदी में समुद्रगुप्त गुप्तवंश का एक अत्यन्त ही प्रतिभाशाली और साम्राज्यवादी शासक हुआ। उसने सम्पूर्ण आर्यावर्त को जीतने के बाद दक्षिण-पथ की विजय यात्रा की उसने दक्षिण कोशल के शासकों महेन्द्र और व्याघ्रराज (बस्तर का शासक) को पराजित कर आगे प्रस्थान किया। इन शासकों ने गुप्त शासकों की अधीनता स्वीकार कर अपने-अपने क्षेत्रों पर शासन किया। गुप्तकालीन सिक्के छत्तीसगढ़ के बानवरद नामक स्थान पर प्राप्त हुए हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि छत्तीसगढ़ पर गुप्त शासकों का प्रभाव था।
राजर्षितुल्य वंश
पाँचवीं सदी के आस-पास दक्षिण कोशल में राजर्षितुल्य नामक नागवंश का शासन था। इसका प्रमाण आरंग से प्राप्त ताम्रपत्र गुप्तसम्वत् 182 या 282 से मिलते हैं। उससे राजर्षितुल्य वंश के शासक भीमसेन द्वितीय का पता चलता है। महाराज सर ने इस वंश की वंशावली आरम्भ की। इस वंश के अन्य महत्त्वपूर्ण शासक थे दायित वर्मा, भीमसेन प्रथम, विभीषण आदि। गुप्त सम्वत् के प्रयोग से स्पष्ट होता है इस वंश के शासक गुप्त अधिसत्ता स्वीकार करते थे।
पर्वतद्वारक वंश
महाराज तुष्टिकर के तेराशिधा ताम्रपत्र से तेल घाटी में शासन करने वाले राव वंश के विषय में जानकारी मिलती है। इस लेख से पता चलता है कि इस वंश के लोग स्तम्भेश्वरी देवी के उपासक थे, जिसका स्थान पर्वतद्वारक में था, जिसकी समानता कालाहाण्डी जिले के पर्थला’ नामक स्थान से की जाती है। पर्वतद्वारक वंश का नाम इसी आधार पर पड़ा था जिसके अधिकार क्षेत्र में रायपुर का दक्षिणी भाग आता था।
नलवंश
नलवंश से सम्बन्धित पुरातात्विक सामग्री का अभाव है। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति’ में उल्लिखित महाकान्तार के राजा व्याघ्रराज का सम्बन्ध कुछ । इतिहासकारों ने बस्तर-कोरापुट के नलवंश से स्थापित किया है, किन्तु अन्य सोतों से इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है। इस राजवंश के कुल पाँच अभिलेख-भवदत्त वर्मा का ऋद्धिपुर (अमरावती) ताम्रपत्र तथा पोड़ागढ़ (जैपुर) (राज्य) शिलालेख, अर्थपति का केशरिबेड ताम्रपत्र एवं पाण्डियपाथर लेख (उड़ीसा) तथा बिलासतुंग का राजिम शिलालेख प्राप्त हुए हैं।
इसके अतिरिक्त एडेंगा तथा कुलिया से प्राप्त मृद्भाण्डों में इस वंश के राजाओं के सिक्के मिलते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में समुद्रगुप्त की ‘प्रयाग प्रशस्ति, प्रभावतीगुप्त (वाकाटक) का ‘ऋद्धिपुर ताम्रपत्र’ लेख, चालुक्य पुलकेशिन प्रथम का ‘एहोल अभिलेख एवं पल्लव नन्दीवर्धन के ‘उदयेन्दिरम ताम्रपत्र’ आदि से नलों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। नलवंशीय लोग अपना सम्बन्ध पौराणिक नल से स्थापित करते हैं, किन्तु ऐसा कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ है। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस वंश का सर्वप्रथम शासक वराहराज था। एडेगा से प्राप्त मुद्भाण्ड में वराहराज (400-440 ई.) की 29 स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त हुई हैं।
मिराशी का मत है कि यह भवदत्त का पिता था। अभिलेखों के साक्ष्यों से नल-वाकाटक संघर्ष की जानकारी प्राप्त होती है। उसके उत्तराधिकारी भवदत्त वर्मा (440-460 ई.) ने बस्तर तथा कोशल क्षेत्र में वाकाटकों को परास्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार नागपुर तथा बरार तक कर लिया था। इसके पश्चात् अर्थपति उत्तराधिकारी शासक बना था। अर्थपति के केशरिबेड़ ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि अर्थपति नलों की प्राचीन राजधानी पुष्करी में वापस आ गया था। इसी के समय वाकाटकों द्वारा पुनः शक्ति प्राप्त कर लेने पर आक्रमण कर नागपुर तथा विदर्भ का क्षेत्र नलों से न केवल वापस ले लिया गया वरन् नलों की राजधानी पुष्करी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया।
अर्थपति की शासन अवधि को डॉ. हीरालाल शुक्ल ने 460-475 ई. बतलाई है। इसने भी अपने पिता भवदत्त की भाँति सोने के सिक्के चलाए थे। एडेगा निधि में अर्थपति के दो सिक्के प्राप्त हुए हैं। अर्थपति के बाद उसका अनुज स्कन्दवर्मा उत्तराधिकारी शासक बना। इसके पोड़ागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने नष्ट-भ्रष्ट पुष्करी को पुनः स्थापित किया। स्कन्दवर्मा के पश्चात् नल राजाओं के विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। विलासतुंग के राजिम शिलालेख से उसके पिता पर विरुपाक्ष और पितामह पृथ्वीराज के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। स्कन्दवर्मा और पृथ्वीराज के मध्य इतिहास पर अभिलेखों से कोई जानकारी नहीं मिली है। उसके उत्तराधिकारियों ने सम्भवतः दक्षिण कोशल के पाण्डुवंशीय शासकों की सत्ता समाप्त की थी।
दुर्ग जिले में कुलिया नामक स्थान से प्राप्त मृद्भाण्ड से नन्दनराज और स्तम्भ नामक दो राजाओं के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। सम्भवतः ये नलवंशी शासक थे, जिन्होंने स्कन्दवर्मा के पश्चात् और पृथ्वीराज के पूर्व शासन किया था। इसी समयावधि में पूर्वी चालुक्य देंगी के) राजा कीर्तिवमन प्रथम 567-97 ई. ने नलों पर आक्रमण कर प किया था। कालान्तर में शक्ति अर्जित कर नलवंशी राजा दक्षिण कोशल के दक्षिण-पूर्वी अभिलेख के अध्ययन एवं पुरालिपीय प्रमाणों के आधार पर विलासतुंग की भाग में स्थानान्तरित हो गए। राजिम से प्राप्त विलासतुंग के प्रस्तर ज्यावधि 700-740 ई. रखी गई है। यह विष्णु उपासक था।
राजिम का सिद्ध राजीवलोचन मन्दिर विलासतुंग द्वारा बनवाया गया था। ल्लव नन्दीवर्धन के उदयेन्दिरम् दानपत्र से विलासतुंग के पश्चात् पृथ्वीव्याघ्र मक नल राजा के उत्तराधिकारी होने का पता चलता है। इसके डेढ़ सौ वर्ष “श्चात् एक अन्य नलवंशी राजा भीमसेन के बारे में जानकारी मिलती है। म्भवतः वह शैव था। इसका एक ताम्रपत्र भी प्राप्त हुआ है, जिसके विश्लेषण इसकी राज्यावधि 900-925 ई. मानी गई है। भीमसेन के पश्चात् नलवंशी जाओं के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं प्राप्त होती है। सम्भवतः डकारण्य में नाग एवं मध्य छत्तीसगढ़ के सोमवंशियों ने इनका स्थान ले या था। इस प्रकार चौथी से बारहवीं शताब्दी के मध्य लगभग 800 वर्षों तक सन करने के गया था।
चन्द्रगुप्त
चन्द्रगुप्त नन्नदेव सन्तानविहीन था अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका चाचा अर्थात् तीवरदेव का अनुज चन्द्रगुप्त सोम सत्ता का उत्तराधिकारी बना था। सिरपुर के लक्ष्मण मन्दिर स्थित शिलालेख में चन्द्रगुप्त का उल्लेख प्राप्त हुआ है।
हर्षगुप्त
सिरपुर शिलालेख के अनुसार चन्द्रगुप्त का पुत्र एवं उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ था, उसका विवाह मगध के मौखरि राजा सूर्यवर्मा की पुत्री वासटादेवी से हुआ था। इसके दो पुत्र महाशिवगुप्त एवं रणकेशरी हुए थे। हर्ष की पश्चात् उसकी रानी वासटा ने उसकी स्मृति में सिरपुर में हरि मृत्यु के (विष्णु) का एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया था। ईंटों से निर्मित यह मन्दिर वर्तमान में लक्ष्मण मन्दिर के नाम से जाना जाता है, जो इस क्षेत्र में उत्तर गुप्त वास्तुकला का श्रेष्ठतम उदाहरण है। यह भारतीय शिल्प का अद्वितीय उदाहरण के रूप में भी जाना जाता है।
महाशिवगुप्त- बालार्जुन
हर्षगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र महाशिवगुप्त उत्तराधिकारी हुआ। बाल्यावस्था में धनुर्विद्या में पारंगत हो जाने के कारण उसे बालार्जुन भी कहा जाता है। इसने 60 वर्षों तक शासन किया। विद्वानों ने इसकी राज्यावधि 595-655 ई. निर्धारित की है। इसके राजत्व काल के 57वें वर्ष के तीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं। यह शैव धर्मावलम्बी था, किन्तु सभी सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णु भाव रखता था।
इसके शासनकाल में राजधानी श्रीपुर एवं अन्य स्थलों में शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन धर्मों से सम्बन्धित अनेक स्मारकों एवं कृतियों का निर्माण हुआ। यह काल धातु प्रतिमा कला की दृष्टि से अद्वितीय कहा जाता है। श्रीपुर इस समय में बौद्ध धर्म के महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। इस बात का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तान्त से प्रकट होता है।
ह्वेनसांग दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान महाशिवगुप्त के शासनकाल में 635-640 ई. के मध्य (सम्भवतः 639 ई. में) श्रीपुर पहुँचा था। ह्वेनसांग ने यहाँ अनेक बौद्ध बिहार, स्तूप एवं बुद्ध की विशाल मूर्तियों का उल्लेख किया है, जिसकी पुष्टि पुरातात्विक अवशेषों से होती है। ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र को “किया-स-लो’ के नाम से उल्लिखित किया है, किन्तु यहाँ की राजधानी का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उसका कहना था कि यहाँ का राजा क्षत्रिय है तथा वह बौद्ध धर्म में श्रद्धा रखता है।
उसने लिखा कि राज्य में सौ संघाराम (विहार) थे, जहाँ दस हजार महायानी बौद्ध भिक्षु निवास करते थे एवं सत्तर देव मन्दिर थे। ह्वेनसांग द्वारा वर्णित अशोक निर्मित स्तूप की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है।
महाशिवगुप्त कन्नौज के सम्राट हर्ष का समकालीन था। इसके शासनकाल में श्रीपुर की बहुत उन्नति हुई थी। इसके शासनकाल को दक्षिण कोशल अथवा छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण काल कहा जाता है। “वातापी नरेश पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख के अनुसार 634 ईसवी में कोशल नरेश उससे पराजित हुआ था और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। अतः इसके काल में दक्षिण कोशल दक्षिणी राजवंशों के प्रभाव में आ चुका था।
बाड़ी में खुदाई के दौरान प्राप्त हुए थे, जिसका सर्वप्रथम अध्ययन डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर एवं डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने किया था। बालार्जुन के बाद के उत्तराधिकारी हुए। इसके बाद इस वंश का पतन आरम्भ हो गया था।
महाशिवगुप्त बालार्जुन के 27 ताम्रपत्र सिरपुर में एक व्यक्ति के बाड़ी के खुदाई के दौरान प्राप्त हुये थे जिसका सर्व प्रथम अध्ययन डॉ विष्णु सिह ठाकुर एवम डॉ रामेन्द्र नाथ ने किया था
बाल वंश
बिलासपुर से 12 मील उत्तर में पाली नामक स्थल के मन्दिर के गर्भगृह के द्वार में उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण महामण्डलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा किया गया था। विक्रमादित्य को बाण वंश का राजा माना जाता है, जिसका काल नवीं शताब्दी माना गया है।
सोम वंश
सोम वंश के शिवगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र महाभवगुप्त प्रथम हुआ। इसने ‘कौशलेन्द्र’ और ‘त्रिकालिंगाधिपति’ की उपाधि धारण की थी। इसने सुवर्णपुर, मुरसीम, आराम आदि स्थानों में राजधानी परिवर्तित की थी। महाशिवगुप्त का उत्तराधिकारी ययाति प्रथम था।
पाण्डव वंश
अमरकण्टक के आस-पास का क्षेत्र मैकाल के नाम से जाना जाता था। यहाँ पाण्डुवंशियों की एक शाखा के राज्य करने के विषय में शरतबल के बहमनी ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है। प्रारम्भिक दो राजाओं जयबल तथा वत्सराज के साथ कोई राजकीय उपाधि प्रयुक्त नहीं हुई है। इसके बाद नागबल के लिए महाराज उपाधि का प्रयोग किया गया है। इसके पुत्र भरतबल के समय का ऊपर उल्लेखित ताम्रपत्र में इसकी रानी लोकप्रकाशा का उल्लेख है, जो नरेन्द्र की बहन थी। इस नरेन्द्र को शरभपुरीय शासक नरेन्द्र से समीकृत किया गया है। मल्हार में इस वंश का एक और ताम्रपत्र मिला है, जिसमें भरतबल के पुत्र शूरबल का उल्लेख मिलता है।
यद्यपि पुराणों में मैकाल के राजाओं के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है, तथापि इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी नहीं मिलती। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि पाँचवीं शताब्दी में मैकाल क्षेत्र में पाण्डुवंशियों की एक शाखा राज्य करती थी। इस शाखा का दक्षिण कोशल के पाण्डव वंश के साथ प्राचीन सम्बन्ध क्या था इस सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
बाण वंश
छत्तीसगढ़ में पाण्डुवंशी सत्ता की समाप्ति में बाणवंशीय शासकों का भी योग था। कोरबा जिले में ‘पाली’ नामक स्थल में मन्दिर के गर्भगृह के द्वार में उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण महामण्डलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा किया गया था। विक्रमादित्य को बाण वंश का राजा माना गया है, जिसका काल 870 से 895 ई. माना गया है। बाण वंशी शासकों ने सम्भवतः दक्षिण कोशल के सोमवंशियों को बिलासपुर क्षेत्र में पराजित किया था। कालान्तर में कलचुरि शासक शंकरगण द्वितीय मुग्धतुंग ने इनसे पाली का क्षेत्र जीत लिया और अपने भाइयों को इस क्षेत्र में मण्डलेश्वर बना कर भेजा, जिन्होंने दक्षिण कोशल में कलचुरि राजवंश की स्थापना की।
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